चलिये जिस्म के एक प्रसिद्ध बाजार में : जिस्म जाम और जान की बाजी : तीन खेल से सोनागाछी

चलिये जिस्म के एक प्रसिद्ध बाजार में : जिस्म जाम और जान की बाजी : तीन खेल से सोनागाछी


-- अरविन्द चतुर्वेदी
-- 29 जनवरी 2022

एक शाम हम तीन दोस्त बड़ी हिम्मत जुटाकर बदनाम बस्ती सोनागाछी की निषिद्ध गली के मुहाने पर खड़े हुए। इरादा था कि गली के इस पार से सेंट्रल एवेन्यू तक निकल कर पूरी गली का जायजा लिया जाए। इससे पहले हममें से कोई भी इस गली से होकर गुजरा नहीं था। जबरन चेहरे पर सहजता लाने की कोशिश करते हुए हम गली में ऐसे घुसे, जैसे किसी भी गली या सड़क से आम तौर पर राहगीर गुजरते हैं।

सोनागाछी की गली में मेला-सा लगा था। सड़क के दोनों किनारे पर बदन दिखाऊ पोशाकों में, चेहरे पर जरूरत से ज्यादा क्रीम-पाउडर पोते अलग-अलग उम्र की किशोरियां, युवतियां और तमाम कोशिश के बावजूद बढ़ती उम्र की निशानियां न छिपा पाती अधेड़ औरतें।

यह जिस्म का बाजार है। ये औरतें-लड़कियां आपस में बातचीत भी कर रही हैं और आने-जाने वालों को तरह-तरह के इशारे भी। सारा माहौल रोशनी में जगमग है। प्याज की छनती पकौड़ियों और आलूचाप की वजह से समूची गली में जलते तेल और बेसन की गंध समाई हुई है। पकौड़ियों और पान-सिगरेट की इन छोटी-मोटी दुकानों पर दो-तीन दिनों की बढ़ी हुई दाढ़ी वाले तमाम लोग अड्डे जमाए हुए हैं।

इनमें कुछ लोग इधर-उधर चहलकदमी भी कर रहे हैं। सबकी निगाहें गली में आने-जाने वालों पर टिकी हैं। अजीब चमक है इन निगाहों में। आपसे अगर इनकी नजर मिली तो लगेगा जैसे निगाहों के जरिए आपके भीतर कुछ टटोला जा रहा है। निगाहें हमारी भी मिलीं और उधर से इशारे भी हुए। पर हम बराबर सहज बने रहने की कोशिश के साथ यूं चलते रहे, जैसे इस दुनिया से हमारा कोई वास्ता नहीं है।

एक गुमटी के सामने सिगरेट सुलगाने के लिए हम खड़े ही हुए थे कि आजू-बाजू में तीन लोग आकर खड़े हो गए। हमारे कुछ बोले बिना ही किसी होटल के बेयरे की तरह उनका मुंहजबानी मेनू पेश हो गया,
‘चलेगा, साब?’
‘बिल्कुल नया, ताजा माल है।’
‘एक बार देख तो लीजिए, तबियत खुश हो जाएगी।’

फिर इसके बाद जितने प्रदेशों के नाम उन्हें मालूम थे, उन सबका उन्होंने जाप कर डाला, ‘बंगाली है, बिहारी है, यूपी है, पंजाबी है, मद्रासी है। नेपाली भी है। जो आपको पसंद हो, साहब।’

इतना सुनते ही मेरे दोनों साथियों के चेहरे पर घबराहट उभर आई। अब वे जल्दी से जल्दी इस गली से निकल जाना चाहते थे। मैंने बात जारी रखने के खयाल से पूछा, ‘कितने पैसे लगेंगे?’

जवाब मिला, ‘पचास रुपये से लेकर ढाई सौ तक। जैसी चीज, वैसा दाम। इससे ऊपर की भी हैं।’ अब उनसे पीछा छुड़ाने के लिए काफी भरोसा दिलाते हुए मुझे कहना पड़ा, ‘ठीक है, मैं अपने साथियों को सेंट्रल एवेन्यू तक छोड़कर अभी आता हूं। इन लोगों को नहीं जाना है।’

गुनाह और पनाह
जिस्म, जाम और जान की बाजी- तीन खेल से सोनागाछी...। जी हां, सोनागाछी के ये तीन खास खेल हैं। मसलन 1992 में सोनागाछी जिस्म बाजार के एक अड्डे से कोलकाता पुलिस के ही एक जवान की लाश मिली थी। कभी-कभार जान लेने-देने के ऐसे हादसे हो जाते हैं तो चंद दिनों के लिए सोनागाछी में तूफान-सा आ जाता है। पुलिस की छापेमारियां, लड़कियों-दलालों की धरपकड़, काली गाड़ी में सबको लादकर थाने ले जाना। लेकिन वहां भी कब तक रखेंगे? एक-आध दिन में ले-देकर जमानत हो जाती है।

बड़ी पुरानी कहावत है कि कंचन-कामिनी और मदिरा की तिकड़ी भी अपने आप बन जाती है। जिस्म की दुकान पर मौज-मस्ती के लिए बेफिक्र बनाने में जाम शायद मददगार साबित होता होगा। यह भी हो सकता है कि दो घूंट गले से उतरने के बाद गलत काम का अपराध बोध काफूर हो जाता हो या फिर बेपर्दगी का सामना करने के लिए शराब पीकर पर्देदार लोग अपनी झिझक व शर्म भगाते हों और हिम्मत जुटाते हों। मसलन, दलाल के साथ गली से गुजरते हुए एक बेफिक्र अधेड़ और उसके साथ लड़खड़ाते हुए चल रहे 25-26 साल के युवक के बीच की बातचीत गौर करने लायक है,

अमां यार, घबराने की क्या बात थी? साला, मूड खराब हो गया। बेकार तुमको दारू पिलाया।’
‘नेई, ये बात नेई। हमको वो जंची ही नेई। मेरा सिर चक्कर खा रहा था, साला।’
‘तेरे चक्कर में हमारा भी मजा खराब हो गिया। हम अब्बी और दारू पिएगा।’
‘ठीक है, हम आपको दारू पिलाएगा। बाकी आपको कसम, अब्बा को बिल्कुल खबर न चले।’
‘हम तुम्हारा दारू नेई पिएगा। तुमको हमारा यकीन नेई? क्या समझता, हमारे पास पैसा नेई?’

वह अधेड़ आदमी नशे के सुरूर में नौजवान पर उखड़ गया। नौजवान नशे में लड़खड़ाती आवाज में अधेड़ साथी को मनाने की कोशिश में मिमियाने लगा। गरमी कुछ खास नहीं थी। फिर नौजवान का चेहरा पसीने से तर-ब-तर क्यों था? घबराहट और डर की वजह से या तेज नशे में खाए पान के किमाम व जर्दे की वजह से?

सोनागाछी की गलियों में कई जगह तो जाहिरा तौर पर शराब मिलती है और कई जगह किस्म-किस्म की ऐसी रंग-बिरंगी शीशियों-बोतलों में कि सरसरी तौर पर लगे कहीं यह शरबत या टॉनिक तो नहीं। प्याजी पकौड़ी की दुकानों पर बाजार की नजाकत से वाकिफ लोगों को गिलास में पानी की जगह पानी के ही रंग वाली देसी दारू भी आसानी से मिल जाती है। कई दुकानों पर चाय-पकौड़ी और दूसरी चीजें बेचना तो महज एक आड़ है। दरअसल इन दुकानों पर बिकती है देसी शराब, जिसे बांग्ला या बांग्लू कहते हैं।

शौकीन ग्राहकों के मांगने पर बाड़ीवाली बऊ दी खुद भी देसी-विदेशी शराब मंगा देती है। लेकिन आम तौर पर धंधे के वक्त लड़कियों के दारू पीने पर मनाही है। शायद इसलिए कि लड़की कहीं नशे के सुरूर में बहक कर धंधा चौपट न कर दे। हां, सारी रात के लिए आए और बुक कराए ग्राहक की फरमाइश पर लड़की का दारू-सिगरेट पीना जरूर धंधे का हिस्सा है।

जिस्म बाजार के कई अड्डे किसिम-किसिम के अपराधियों, गुंडे, बदमाशों के पनाहगार भी हैं। क्योंकि वे ग्राहक हैं और ग्राहक के लिए दरवाजा हर वक्त खुले रखना इस बाजार का धर्म है। एक दलाल ने एक दिलचस्प बात बताई कि यहां एक अड्डे पर तो केवल शहर के गुंडे-बदमाश ही आते हैं। यह अड्डा आम ग्राहक के लिए नहीं है। शायद अड्डे की मालकिन ने सब तरह से हिसाब बैठाकर इसे स्पेशल बना रखा है।

बाड़ी वाली बऊ दी उर्फ मौसी

सोनागाछी जिस्म बाजार के संचालन का सारा दारोमदार बाड़ी वाली बऊ दी पर होता है। कुछ तो बऊ दी किस्म की महिलाओं की अपनी बाड़ी है और बहुतेरी बऊ दी मकानों की पुरानी किराएदार हैं। जिस्म बाजार में समय-समय पर पुलिस की होने वाली छापेमारियों से निपटना, पकड़ी गई लड़कियों को छुड़ाकर वापस लाना, ग्राहकों और गुंडे-बदमाशों की ज्यादतियों से अपनी लड़कियों को बचाना- यह सारा सिरदर्द बऊ दी का है।

बऊ दी इस सिरदर्द के बदले में लड़कियों की कमाई में हिस्सा लेती हैं। यह बताते समय दलाल मंगला प्रसाद के होठों पर बऊ दी के लिए एक व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट चिपकी रहती है। वह कहता है, ‘क्या है कि साहब, ये जो बऊ दी लोग हैं न, इनको भी तो सबकुछ का परेटिकल एक्सपीरियन (प्रैक्टिकल एक्सपीरियंस) होता है, न। किसी बराबर आने वाले ग्राहक को तजबीज कर उसके साथ एक तरह से घर बसा लेती हैं।’

‘क्या बऊ दी लोग शादीशुदा होती हैं?’
इस सवाल पर ठहाके लगाकर हंस पड़ता है मंगला। हंसते-हंसते कहता है, ‘धत्त तेरे की। अरे, उसे क्या कहेंगे-बऊ दी रखैला रखती हैं, रखैला। कोई टैक्सी वाला होता है, कोई चाय-पान की गुमटी वाला और कोई छोटा-मोटा दुकानदार। सब साला मउगा होता है। बाकी क्या है कि हफ्ता में एक-दो बार बऊ दी का आदमी जरूर आता है।’

सोनागाछी की बऊ दी महिलाओं के बच्चे भी हैं, लड़के-लड़कियां। वे बच्चों को स्कूल भेजती हैं। बाड़ी में मास्टर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने आते हैं। जाहिर है कि बऊ दी के मन में यह इच्छा जरूर है कि उनके बच्चे किसी तरह पढ़-लिखकर सोनागाछी जिस्म बाजार की चौहद्दी पार करके दूसरी बेहतर दुनिया में शामिल हो जाएं।

इस जिस्म बाजार की लड़कियों की हैसियत भी तीन तरह की है। पांच सौ से हजार तक ऐसी लड़कियां हैं, जिन्हें दलाल मंगला प्रसाद हाई क्लास कहता है। इनकी फीस ढाई सौ से तो कतई कम नहीं है और ऊपर हजार-डेढ़ हजार तक जा सकता है। गिफ्ट वगैरह अलग से। हाई क्लास लड़कियां शहर के होटलों में भी जाती हैं, खाली फ्लैट वाले तनहा गुणग्राहक के घर भी।

कुछ ऐसी भी हैं जो किसी की निजी हैं। लेकिन अगर सचमुच वे वफादारी के साथ निजी बनी रहें, तब फिर क्या जिस्म बाजार का रिवाज नहीं टूटेगा? बेवफाई और फरेब पर ही तो टिका है यह जिस्म बाजार। मंगला बताता है, ‘जब लड़की का परमानेंट आदमी किसी दिन नहीं आता तो महंगी फीस वाला टेम्परेरी ग्राहक भी चल जाता है।’

सोनागाछी की हाई क्लास लड़कियों के पास एक-एक साफ-सुथरे अच्छे कमरे हैं और टीवी-विडियो जैसी मनोरंजन की सुविधाएं भी। खाना बनाने, खिलाने के लिए नौकरानी भी है। बाजार से रोजमर्रा की खरीदारी के लिए नौकर भी। ये लड़कियां उत्तर प्रदेश के आगरा और आसपास के इलाके की हैं। कह सकते हैं कि ये जानबूझ कर पेशेवर बनी हैं।

मंगला बताता है, ‘ये लड़कियां मां-बाप, भाई-बहनों के लिए पैसे भेजती हैं। बीच-बीच में इनसे मिलने घर वाले भी आया करते हैं। सोनागाछी की हाई क्लास लड़कियां कम-से-कम हाई स्कूल तक जरूर पढ़ी-लिखी हैं। इन्होंने अपनी कमाई के पैसे कुछ दूसरे कारोबार में भी लगा रखा है। मसलन, कुछ हाई क्लास लड़कियों की महानगर में टैक्सियां भी चलती हैं।’
(यह आलेख नवभारत गोल्ड से साभार है । तस्वीरें गूगल से )