सरकार, हिंदी और भेंड़...! सरकारें आती-जाती रहीं, हमारा दुख जस का तस रहा...

Government, Hindi and sheep...! Governments kept coming and going, our misery remained the same.

सरकार, हिंदी और भेंड़...! सरकारें आती-जाती रहीं, हमारा दुख जस का तस रहा...

-- श्याम किशोर पाठक
-- 20 अगस्त 2021

समझ नहीं आता कि आखिर बात की शुरुआत कहां से करुं? उस सौभाग्य से जिसने हमें अलग झारखंड राज्य दिलाया, या उस दुर्भाग्य से जो हमें ये दिन दिखलाए जब राज्य गठन के कुछ वर्ष बाद ही हम यह सोचने लगे कि इससे अच्छा था कि हम बिहारी ही होते?

देखने और सुनने में यह बात बस इतनी सी है, मगर बिहारी से झारखंडी कहलाने और झारखंडी से पुनः बिहारी होने की मंशा के बीच के इस अविराम उथल-पुथल में हमने जो खोया-पाया है, उसकी विवेचना शायद यहां संभव नहीं।

बस सरकारें आती-जाती रहीं, पर हमारा दुख वही रहा। वैसे कमोबेश यह दुख संपूर्ण झारखंडियों का रहा। लेकिन सबों में भी हम पलामवी को हरदम उस यंत्रणा से गुजरना पड़ा, जहां हम सगे होकर भी सौतेले और गोद लिए हुए बच्चे की तरह समझे जाते रहे।

हमारे दुख के साझेदार बेशक वे लोग भी हैं, जो आज की स्थिति में बंटे हुए भाई की तरह सक्षम भाई के रहमोकरम पर उसके घर में रहने को मजबूर है। साफ शब्दों में कहूं तो ये लोग, वो लोग हैं, जो आज की तिथि में बिहारी कहे जाते हैं, भले वे खुद को झारखंडी बताने को आतुर रहे हों।
यह अजीब विडंबना है कि जिस राज्य में अब भी नौकरीपेशा करने वाले अधिकांश लोग न सिर्फ बिहार के बल्कि एमपी और यूपी के हैं। वहां अब अपने ही लोगों के साथ कभी अधिसूचित और गैर अधिसूचित क्षेत्र का क्लॉज जोड़कर तो कभी स्थानीय और बाहरी भाषा का सवाल उठाकर उनके साथ अन्याय किया जा रहा है।

पिछले दिनों सरकार द्वारा स्वीकृत नियुक्ति नियमावली के तहत ली जानी वाली परीक्षा में स्थानीय भाषा को निर्धारित करते हुए जिन भाषाओं को सूची से अलग किया है, या उन्हें इस सूची में शामिल नहीं किया गया है, उसमें भोजपुरी, मगही और अंगिका जैसी भाषाएं ही नहीं, वो हिंदी भी शामिल है, जो हमारी राष्ट्रभाषा, राजभाषा और मातृभाषा तो है ही, सही मायने में यह हमारी पहचान भी है।

यह कोई इत्ती सी बात नहीं कि किसी भाषा के साथ सरकार ने भेदभाव किया गया है, बल्कि यह हमसे हमारी पहचान छीन लेने वाली कार्रवाई है। जैसे सरकार में बैठे लोगों को यह लगता है कि खोरठा, मुंडारी और नागपुरिया से उनकी पहचान को एक आइडेंटिटी मिलेगी, वैसे ही उन्हें इस बात को भी समझना चाहिए कि ये हिंदी ही है जिसने आज दुनिया भर में हमें वो पहचान दिलाई है, जिससे हम खुद को कुछ खास और अलग महसूस करते हैं।

पर न जाने क्यों सरकार और उनके कारिंदों को यह लगता है कि हिंदी जानने वाले विदेशी हैं। उन्हें मौका देने से स्थानीय भाषा खतरे में पड़ जाएगी। सरकार के कुछ मंत्री अपने विवेक का भोंपू यही कहकर बजा रहे हैं कि हिंदी स्थानीय नहीं है। लेकिन हम जैसे लोग यह नहीं समझ पा रहे कि उर्दू, बंगला और उड़िया राज्य की स्थानीय भाषा कैसे हो गयी?

एक हद तक यह भी सही है कि बॉर्डर के कुछ जिलों में बंगला और उड़िया भाषा के असर को देखते हुए सरकार ने उन्हें स्थानीय मान लिया हो, परन्तु सरकार ने आखिर उर्दू को किस आधार पर स्थानीय भाषा माना है? आखिर उर्दू  किस जिले की स्थानीय भाषा है? जबकि सरकार को यह पता है कि पलामू और गढ़वा जिले के साथ-साथ हजारीबाग, कोडरमा, धनबाद, जमशेदपुर के साथ-साथ राजधानी रांची जैसे कुछ ऐसे जिले हैं, जहां की एक बड़ी आबादी हिंदी को ही अपना लोकल भाषा मानती है। फिर हिंदी से ऐसा बैर क्यों?

हिंदी को लेकर सरकार के इस टुचपने और उसकी थेथरई को देखते हुए पलामू-गढ़वा में प्रचलित एक प्रसिद्ध कहावत- 'भेंड़ जाने भूसा के मरम' चरितार्थ  होता है। जहां के लोग नासमझों/ अनकल्चर्ड/भाषायी स्वादों से अनभिज्ञ लोगों के लिए इसे व्यवहृत किया करते हैं। हिंदी/भोजपुरी की यह कहावत यहां खासा प्रचलित है। क्योंकि  जब भी कोई व्यक्ति इस सरकार जैसी उटपटांग हरकत करता है, मतलब कि जिस स्वाद को वह जानता ही नहीं और उसके लिए बेमतलब के अलग-अलग परिभाषाएं और विचार गढ़ता चला जाता है, तब उसके लिए लोग इस व्यंग्य वाण का इस्तेमाल करते हैं। फिर वह बेचारा ऐसे चुप होता है, जैसे सबके सामबे वह नङ्गा हो चुका हो।

पर शायद यह सरकार न तो शरमाती है और ना ही समझती है, उसे तो बस खुद को एक खास वर्ग और एक खास संप्रदाय का शुभेच्छु और हितैषी साबित करना है। इसके लिए वह कुछ भी कर सकती है। हिंदी के प्रति इस बैर भाव के पीछे का निहितार्थ बस यही है। अब देखना यह है कि सरकार के साथ वाले ये हिंदवी/पलामवी लोग खुद के लिए और हमारे लिए क्या करते हैं?

(इस आलेख में प्रस्तुत विचार और तथ्यों के लिए सिर्फ लेखक ही पूर्णतया जिम्मेदार होंगे । हम असहमति के साहस और विवेक के धैर्य का भी सम्मान करते हैं ।)